कोरे कार्ड के चार टुकड़े | रमेश बक्षी – Kore Card Ke Chaar Tukade

कोरे कार्ड के चार टुकड़े | रमेश बक्षी

एक सुर्ख गुलाब उसकी मेज पर रखा है और एक सफेद गुलाब दाहिनी चोटी की पहली गुँथन से कोई एक इंच ऊपर, कान से थोड़ा नीचे, ऐसी लापरवाही से खोंसा गया है कि कभी भी गिर सकता है। मैं इन दोनों गुलाबों को बीसियों बार देख चुका हूँ और देखता ही जा रहा हूँ क्योंकि मेरा काम ही है इस कमरे का चक्कर काटना। चार कतारों में हरेक में दस के हिसाब से, चालीस मेज-कुरसियाँ लगी हैं, दो कतारें दीवारों से लगी हैं यानी मुझे हर बार में कमरे के तीन राउंड लेने पड़ते हैं। सामने की ओर से देखें तो यूँ कह सकते हैं कि मेरी चहलकदमी हर बार अंग्रेजी का ‘एस’, या मात्रा गिनने का दीर्घ निशान बनाती जा रही है। मैं पढ़ भी नहीं रहा हूँ, लिख भी नहीं रहा हूँ, क्योंकि इसकी मनाही है पर सोच जरूर रहा हूँ। इससे किसी प्रकार की भी कोई आवाज नहीं निकल रही, पर सायलेंसर वाले स्टोव की तरह चुपचाप किसी चीज की गैस बन रही है और कोई गैस फ्लेम पकड़ती जा रही है।

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हवा का झोंका आया सो उस लड़की का सुर्ख गुलाब मेज से जा उड़ा है, मैं आगे बढ़ उसे उठा वापस मेज पर रख देता हूँ, वह मुसकराती मेरी ओर देख धीरे-से कहती है, ‘थैक्यू सर।’ मैं ‘कोई बाती नहीं’ कहता फिर-फिर चहलकदमी का ‘एस’ बनाने लगता हूँ।

आज आखिरी दिन है यहाँ का। इस ड्यूटी। के बाद पूरे दो माह की छुट्टी। आज रात ही अपने घर-शहर चला जाऊँगा। ट्रेन शायद दस-दस को छूटती है। सवेरे ही पार्टनर से पूछ रहा था कि रात की ट्रेन से जाऊँ तो मेल पकड़ सकूँगा! उसने बतलाया था कि बीना में मेल कभी मिलता है, कभी नहीं। मिला तो कल ग्यारह के लगभग घर होओगे, नहीं तो एक घंटे बाद पेसेंजर मिलेगी और सारा दिन बरबाद!… सोच रहा हूँ कि एक घंटे की रिस्क कौन ले… मेल मिले मिले, न मिले न मिले…

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‘सर!’ दीवार के पास वाली कतार से किसी ने पुकारा है। मैं पास जाता हूँ तो वह पानी को कहता है। मैं खिड़की में से ही बाहर बैठे चपरासी से कह रहा हूँ, ‘पानी ले आओ!’… चपरासी जग में पानी भरने लगा है पास रखे मटके में… कहाँ तो मैं चाय पीने जा रहा था और कहाँ वापस अपने कमरे में लौट आया हूँ।

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चपरासी कार्ड लाकर देता है। मैं लिखने को पेन निकालता हूँ पर दोनों मेजों पर कुचले पड़े सुर्ख और सफेद गुलाबों पर जाकर मेरी आँख भटक जाती हैं। मैं अनमना-सा चहलकदमी का ‘एस’ बनाने लगता हूँ। एक लड़का हिंदुस्तान का नक्‍शा बना रहा है, शायद इतिहास का पेपर है, लगता है मुझे उस नक्‍शो में गुलाब के कुचले हुए फूल-ही-फूल बिखरे हैं – सफेद, सुर्ख और भी कई रंगों के फूल, मगर सब कुचले हुए…

मैं काँपते हाथों से अपना खुला पेन बंद करता हूँ, गुस्से में आकर मँगवाये हुए कोरे कार्ड के चार टुकड़े कर उसे बरामदे में फेंकता हुआ अपने आप से कहता हूँ ‘मैं वाया बीना जाऊँगा।’

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