नीलकंठी ब्रज भाग 18 | इंदिरा गोस्वामी
नीलकंठी ब्रज भाग 18 | इंदिरा गोस्वामी

नीलकंठी ब्रज भाग 18 | इंदिरा गोस्वामी – Neelakanthee Braj Part xviii

नीलकंठी ब्रज भाग 18 | इंदिरा गोस्वामी

सौदामिनी की स्मृतियाँ जल्दी ही विस्मृति के गर्त में खो गयीं। देवधरी बाबा, जो पानी के ऊपर बने बाँस के मंच पर रहा करते थे, एक बार फिर भक्तों और प्रशंसकों को आकर्षित करने लगे, जो सैकड़ों में उनके सोने के फ्रेम में जड़ने योग्य शब्द सुनने के लिए रेतीले किनारे पर जमा हो जाते थे।

सौदामिनी की मृत्यु के बाद कलाकार राकेश को कई दिनों तक रेत पर भटकते देखा गया। फिर अष्टसखी की सीढ़ियोंपर बैठकर उसने एक चित्र बनाना शुरू किया।

पंडों के झुंड नये तीर्थयात्रियों की खोज में ही भद्दी फब्तियाँ कसते थे। ‘महाशय…’ वे कहते थे, ‘तुम केवल पदचिह्नों को चित्रित कर रहे हो। किन्तु उन्हें कौन खरीदने जा रहा है!’

कलाकार उत्तेजित हो जाता था और रोषपूर्ण प्रतिक्रिया करते हुए और कहता था, ‘मैं जो बना रहा हूँ निश्चित ही पदचिह्न हैं। मैंने यमुना की रेत ताजा ही उठायी है। किन्तु मैं चुनौती देता हूँ तुममें से प्रत्येक को यह बताने के लिए कि इसमें कौन-सा हिन्दू है और कौन-सा ईसाई और कौन-सा मुसलमान का। यदि कर सकते हो तो अभी करो।’

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वे बेवकूफ निर्वाक् रह जाते थे। उन्होंने सुना कि वह कलाकार इन दिनों एक से दूसरे भिक्षागृह तक रोटी के एक टुकड़े के लिए भटकता रहता है। दिमाग से चल गये व्यक्ति-सा वह राधेश्यामियों के झोंपड़ों के पास भी घूमते हुए इन दिनों देखा जा सकता है। एक ही चादर, जो उसके पास थी, उसने एक सोती हुई बूढ़ी राधेश्यामी पर डाल दी।

इसके कुछ दिन बाद उस बूढ़े कलाकार को एक दिन मथुरा जंक्शन रेलवे स्टेशन के पास देखा गया। पंडे, जो नये तीर्थयात्रियों को ब्रज की पवित्र भूमि तक ले जाने की जुगाड़ में थे, उन्होंने उससे कहा, ‘हम तुम्हें कैसे पहचानेंगे, यदि कभी हम तुमसे फिर मिले। तुमने कहाँ रहने का सोचा?’

कलाकार मुस्कराया और उसने उत्तर में कहा, ‘मुगल शैली के चित्रकारों में आखिरी चित्रकार रामप्रसाद के बारे में कलाकार रायकृष्ण दास ने जो कुछ देखा-लिखा, आपको याद नहीं है क्या! उसके बारे में कहा जाता है, उसका स्वभाव ईमानदार दृष्टिकोणवाला, दार्शनिक और सौन्दर्य की पहचान करने वाला था। कहने का मतलब है, सामान्य व्यक्तियों के स्वभाव-सा। यह इसलिए क्योंकि किसी वस्तु का सच्चा आकलन उसमें विद्यमान सौन्दर्य की प्रशंसा में निहित है। अत: एक दार्शनिक और एक कलाकार के बीच पहुँच की मूलत: एकता है। रामप्रसाद की परख बहुत गम्भीर एवं भीतर तक धँसने वाली थी। वह चित्रकार एवं गायक के रूप में समान योग्यता वाला था। किन्तु विडम्बना है कि ऐसे महान व्यक्ति को अपने दिन अभाव एवं गरीबी में गुजारने पड़े। अब तुम रायकृष्ण के इन शब्दों को याद कर सकते हो। उनको पता था कि कैसे काशी की एक भद्दी गली में मुगल शैली की चित्रकारी के महान प्रतिनिधि को पाया जा सकता है। तुम उस मास्टर को जानते हो, उन्होंने कहा, ‘उसकी भद्दी अव्यवस्थित दाढ़ी, उसकी गन्दी धोती और कन्धों पर पड़ी उसकी बहुत साफ शाल से। अक्सर वह नंगे पाँव चलता है। फिर भी तुम उन्हें पहचानते ही हो। अब तुमने पूछा, मुझे तुम कैसे पहचानोगे! किन्तु मैं किसी कला का कोई अन्तिम प्रतिनिधि नहीं हूँ। मैं ब्रज के अष्टधातु कलाकारों का अयोग्य वारिस हूँ। रामप्रसादजी को उनकी साफ शाल से पहचाना जा सकता है। किन्तु मैं ऐसा कुछ नहीं पहनता। तुम मुझे जैसा अब हूँ, बिना चादर के देखोगे। वे कहते हैं, रामप्रसादजी गांधी टोपी भी लगाया करते थे। तुम मेरे सिर पर एक गांधी टोपी देख सकते हो। एक साफ गांधी टोपी – चमकीली और साफ।’

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‘गांधी टोपी?’ पंडों के जमघट ने अविश्वास से पूछा।

‘हाँ, एक गांधी टोपी, मेरा मतलब इसी से है। मैं अक्सर नंगे पाँव चलता हूँ। किन्तु एक साफ गांधी टोपी फिर भी मेरे सिर की शोभा बढ़ाएगी।’

उन्हें विश्वास दिलाने के लिए अन्त में उसने कहा, ‘पक्का होने के लिए यह मेरा हमेशा का चिह्न रहेगा। एक गांधी टोपी – साफ और चमकीली।’

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नीलकंठी ब्रज भाग 18 – Neelakanthee Braj Part xviii

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