न जाने कब से मैं
एक कविता-पंक्ति ले
यहाँ-वहाँ भटकी हूँ।
कल गर्मी थी :
धूप थी, तपन थी।
आज बरसात है :
ऊपर घिराव और नीचे गिजगिजाहट है।
कल ठंड हो जाएगी :
भाव, छंद सब जमेंगे।
आह ! यह मेरी भटकती पंक्ति कविता की अकेली,
टूटी कड़ी-सी
अब किसी से न जुड़ पाएगी।
सब कुछ हिंदी में
न जाने कब से मैं
एक कविता-पंक्ति ले
यहाँ-वहाँ भटकी हूँ।
कल गर्मी थी :
धूप थी, तपन थी।
आज बरसात है :
ऊपर घिराव और नीचे गिजगिजाहट है।
कल ठंड हो जाएगी :
भाव, छंद सब जमेंगे।
आह ! यह मेरी भटकती पंक्ति कविता की अकेली,
टूटी कड़ी-सी
अब किसी से न जुड़ पाएगी।