माई मनसा-दीप जला कर
रोज शिवाले मत्था टेके
बिटिया झींक रही पीछे से
‘क्या पाती है.. तन-मन दे के?’
मगर नहीं वह माँ से पूछे
लाभ उसे क्या आखिर इसका?
आँख मूँद जो गुनती रहती
“वंश-बाँस पर वश है किसका?
शैलसुता-से पाँव सहज हों
जागे भाग करम के छेके…!”
जुड़ते हाथ अगर मंदिर में
ताली बजती क्यों गाली पर
सिद्धिरात्रि ने खोला खुद को
मौन सभी क्यों बिकवाली पर!
देकर दूब सहारा, मिलते
यहाँ जागरण के सब ठेके!
जोड़ रही कल्याणी पैसे
कालरात्रि की रातें बेदम
आहत-गर्व पड़ी कूष्मांडा
दुर्गा के मन पैठा विभ्रम
खप्परवाली काली बैठी
जूठे बरतन-बासन ले के!
उलझी अपने अपरूपों में
अपनों ही से प्रश्न करे वह!
सारे प्रश्नों को ले बिटिया
सोचे किससे उत्तर ले वह?
जगत-नदी है उत्पाती पर
अब तो पार करेगी खे के!