‘सेवासदन’ के उपरांत सन् 1920 में प्रेमचंद का यह उपन्यास प्रषित हुआ ।
किन्तु ‘सेवासदन’ के भाँती इस उपन्यास में भाव की गरिमा और वैचारिक स्पष्टता नही थी ।
उपन्यास की अधिकांश कथा में क्रमशः कृत्रिमता बढ़ती चली गयी है और कल्पना की अतिशयता ने मूल कथानक को ही गडबड कर दिया है ।
निसंदेह ही ‘वरदान’ प्रेमचंद की एक दुर्बल कृति है ।