दुख
दुख

(1.)

फिसलता है
बाँहों से दुख
बार बार
नवजात जैसे कमउम्र माँ की गोद से
पैरों पर खड़े हो जाने तक इसके
फुरसत नहीं मिलेगी अब

जागती हूँ
मूर्त मुस्कान
अमूर्त करती हूँ पीड़ा
डालती हूँ गीले की आदत
अबीर करती हूँ एकांत
उड़ाती हूँ हवा में…

(2.)

सब पहाड़ी नदियाँ एक सी थीं
मैं ढूँढ़ रही थी एक पत्थर
झरे कोनों वाला
चिकना चमकीला

READ  हम ही हैं | मिथिलेश कुमार राय

सब पत्थर एक से थे…

(3.)

दर्द के बह जाने की प्रतीक्षा में
तट पर अवस्थित…
अँधेरा है कि घिर आया
नदी है
कि थमती ही नहीं
एक खाली घड़े से
इसे भर सकती हूँ
पार कर सकती हूँ इसे

(4.)

पुरखिन है
दुख
बाल सहलाती चुपचाप
बैठी है मेरे पीछे
चार दिन निकलूँगी नहीं बाहर
एक वस्त्र में रहूँगी
इसी कविता के भीतर

READ  आकस्मिक मुलाकात

(5.)

हिलाओ मत
न छेड़ो
बख्शो

लेती हूँ वक्त
टूटी हुई हड्डी सा
जुड़ती हूँ

Leave a comment

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *