वक्त के साथ सब बदलता है, सच है
लेकिन ये भी सच है कि
वक्त का इंतजार करते-करते सालों बीत जाते हैं
बढ़ती उम्र के साथ वक्त भी बदल जाता है
पर तब तक ख्वाहिशों की शक्ल बदल जाती है
इनसानों की शक्ल के साथ-साथ
संकुचित मापदंड आपसी टकराव
सालों बर्बाद कर देते हैं हमारा
ख्वाहिशें बदल जाती हैं और
जरूरतें ख्वाहिशों की जगह लेकर
हमें हमारी उम्र से भी बूढ़ा बना देती हैं
अब दिल और दिमाग एक साथ नहीं होता
न झरने देखने की चाह होती है
न बर्फ की जमीं पर चलने की
न दोस्तों की हुड़दंग के साथ त्यौहार मनाने की
न नई बारिश में मिट्टी की खुशबू भाती है
न साथ चाहता है दिल किसी खास का
वक्त तेजी से हमें खींचता ऐसी जगह ले जाता है
जहाँ सब ठहर सा जाता है
गम बर्दाश्त करने की ताकत होती है
खुशी में न खुश होने की सलाहियत आ जाती है
सब कुछ सीधा सा, सहमा सा बिना उतार चढ़ाव के
चल पड़ता है और तब लगता है
आधी उम्र खत्म हो गई
आधी है या नहीं पता नहीं
जो है वो धीरे-धीरे रेत के खिलौनों सी
रिसती-रिसती खत्म हो जाएगी
रेत खत्म खेल खत्म और उम्र भी खत्म
बस एक आह रह जाएगी लाश के किसी हिस्से में
वक्त के साथ क्यों नहीं
होतीं ख्वाहिशें पूरी…