सड़क पर बोरा लिए 
कागज बटोरता हुआ एक लड़का 
अपने बचपन को छिपाने की चेष्टा करता 
अपने मन को मार आँखों को जमीन पर टिकाता 
इधर-उधर जमीन पर नजर दौड़ाता 
चला जा रहा था

सड़क पर सामने से आते हुए 
उसके जैसे हमउम्र बच्चे 
बचपन से भरे हँसते-खिलखिलाते 
साफ सुथरे उनके कपड़े 
और कपड़ों के जैसे उनके साफ खिले चेहरे 
झुंड में स्कूल के लिए निकल रहे थे 
लड़का उन्हें देख सकुचाता है 
खुद को बोरे के पीछे छिपाता है 
और पसीने से भीगा चेहरा पोंछ 
आगे बढ़ जाता है

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आगे खूबसूरत बाग रंग-बिरंगे फूल 
खिलौनों की दुकानें और दुकानों पर 
अपना खिलौना चुनते बच्चे 
माँ-बाबा से अपना खिलौना लेने की जिद कर रहे थे 
लेकिन इस लड़के को कुछ भी नहीं दिख रहा था 
या वो देखना नहीं चाहता था 
सिवाय कागज के टुकड़े के 
उसने कभी कोशिश भी नहीं की 
कुछ भी देखने की

शायद मालूम होगा उसे 
चाहना और पाना दो अलग-अलग बातें हैं 
अपनी उम्र से भी बड़ा बना दिया था उसे 
इन रास्तों और बिखरे हुए कागजों ने 
वो जानने लगा था शायद 
उसकी चाह सड़कों और कागजों तक ही सीमित है 
ये चलते फिरते सपने और सपने जैसे रंग भरे 
बच्चे बनना उसकी कल्पना से भी बाहर था

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शाम होने से पहले इस बोरे को कागज से भरता है 
बिकने पर बीस रुपये कमाता है 
उससे दो रोटी और एक चाय खरीद 
भूखे पेट को भरके सो जाता है 
सुबह होते ही अपना बोरा लेके 
फिर सड़कों पर आ जाता है 
एक नई आस के साथ 
काश! उसका बोरा आज जल्दी भर जाए 
और रोटी खाके वो जल्दी सो जाए 
देखेगा सपने 
सपने जैसे साफ-साफ बच्चों के 
जहाँ वो उनमें से एक होगा 
हाथ में बोरा नहीं बस्ता होगा 
और बस्ते में माँ का दिया खाने का डिब्बा होगा 
जिसमें पेट भर खाने को खाना होगा… 
तभी एक डंडा उसकी पीठ पर पड़ता है 
हवलदार उसे जगाकर फुटपाथ से भगाता है – 
‘कब तक सोएगा हीरो! काम पे नहीं जाना है!!!’

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