यादों का जंगल | विमल चंद्र पांडेय

यादों का जंगल | विमल चंद्र पांडेय

कवियों के शब्दों ने यादों को जंगल बताया था
तब से ही मुझे मेरी यादें मूँज का जंगल लगती हैं
इससे कितना भी बच कर गुजरूँ
एकाध जगह से खून तो निकलना ही है

कारणों की पड़ताल नहीं की कभी
लेकिन लगता है 10 साल पहले ही जीना शुरू किया है
उसके पहले की बातें पाइरेटेड सीडी वाली फि़ल्म की तरह याद आती हैं
आधी-अधूरी, अस्पश्ट और एक के खोल में दूसरी
बचपन अर्धबेहोशी में देखे टीवी कार्यक्रम जैसा
ही-मैन को कहीं देखने पर सिर्फ इतना ही याद आता है
कि रामायण से पहले आता था और हम देखने के लिए किसी के घर जाकर मिन्नतें करते थे
कुछ असर बहुत गहरे तक उतरे मगर कब पड़े याद नहीं
इतना कि कभी देखूँ रीना रॉय की कोई भी पुरानी फि़ल्म
लगता जैसे अगले दृश्य में उसे नागिन बनना है और डस लेना है किसी को

See also  समय से अनुरोध | अशोक वाजपेयी

एक क्रिकेट के मैच के लिए किसने दी सैकड़ों कुर्बानियां
प्रेम निवेदन के लिए जाते दोस्त को किसने लिखा सात पन्ने का प्रेमपत्र
अपनी परीक्षा छोड़कर
कौन था शहर में सबसे स्मार्ट
किसने विदाउट टिकट किया था दिल्ली का सफर एसी में
ऐसे बचकाने एडवेंचर करने वाला जो था
उसकी शकल यादों के जंगल में से झाँकती
है हूबहू मेरे जैसी

See also  अस्तित्व

नौकरी के सिर्फ आठ सालों में भूल चुका हूँ
उसके पहले के अच्छे दिन
जब से पैदा हुआ तब से कर रहा हूँ बिना मन की नौकरी जैसा अनुभव होता है
शादी के सिर्फ पाँच सालों में
याद नहीं आती भूले से भी बिस्तर की अकेली रातें
इतनी जल्दी की शादी के पहले के कुँआरेपन के दिन हवा हो गए हैं
उस समय की यादें मुझसे रूठ गई हैं
मैं वर्तमान में जीने लगा हूँ
इसे किसी कहावत की तरह न लें
मैं अपनी डायरी न लिखने की आदत पर शर्मिंदा हूँ
उस जंगल में क्या हो रहा है
मैं जानना चाहता हूँ
मैं वहाँ जाना चाहता हूँ मगर रास्ता भूल जाता हूँ
जिन्हें रास्ता पता है
वे प्लाइवुड बेच रहे हैं
एनजीओ चला रहे हैं
या डॉक्टरों के पास बैग लेकर चक्कर काट रहे हैं।

See also  वो पहाड़ नहीं थे | दीपक मशाल