आजकल | रामसनेहीलाल शर्मा

आजकल | रामसनेहीलाल शर्मा

धूप सपनों को
झिंझोड़े आजकल
सूर्य का रथ
कौन मोड़े आजकल।

जिंदगी नंगी
चतुष्पथ पर खड़ी
चीर खींचा है
दुशासन-दर्प ने
लहर पर अब लहर
विष की चढ़ रही
डँस लिया दुर्दांत
तृष्णा सर्प ने
है बहुत निर्बंध
उच्छृंखल हठी
चाह के
स्वच्छंद घोड़े आजकल।

आँख में जाले
पड़े हैं पीर के
भाल के घर
दर्द की हैं दस्तकें
साँस हर
संताप की भाषा पढ़े
रात पढ़ती
जागरण की पुस्तकें
चेतना को वासना
छलने लगी
करवटों को
मौन कोड़े आजकल।

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