पढ़ने निकले बच्चे | राकेश रेणु
पढ़ने निकले बच्चे | राकेश रेणु
एक की जेब में कुछ टाफियाँ मिलीं
एक की आँखों में उम्मीद थी मानों ठहर गई
गुब्बारे के लिए जो माँ ने दिए थे
एक का लंचबॉक्स खुलकर बिखर गया था
जल्दी में केवल पावरोटी रख पाई थी माँ उसमें
एक का थैला कीचड़ में धँस गया था
पतंग, तितलियाँ और फूलों वाली किताब भीग गई थी
एक को लौटकर बाजार जाना था पिता के साथ
दूसरे के मोजे खरीद कर रखेंगे दादा
बहन के जन्मदिन पर एक ने सुंदर तोहफा देने का
किया था वादा
एक का भाई भी था उसी बस में जो
तीन बहनों के बाद था
पिता ने प्रगतिशील होने का मोह छोड़ दिया था जिसके लिए
चिड़ियों का कलरव सुना जा सकता था आधी रात गए
और वह अपशकुन हरगिज नहीं था हालाँकि
माँएँ खीजतीं अपनी अनसुनी पर
छाती पीटी माँएँ कोसतीं खुद को
आज जगाया ही क्यों सोते बच्चे को
किंकर्तव्यविमूढ़ पिता कोशिश करते झटक देने की
और लड़खड़ा जाते
एक डर समा गया सबके भीतर
एक सिहरन फैल गई
जीवन थोड़ी देर के लिए ठहर गया
कुछ ने घटना को खबर की तरह लिया
– ठहरी हुई चीजें उनके दृश्य-विस्तार का हिस्सा नहीं थी
ठहरी हुई संवेदना साक्षात् थी उनके चेहरों पर
एक पूरी पीढ़ी डर गई थी और खड़ी थी
गति का विलोम दृश्यमान था हर तरफ
एक समुद्र लील रहा था उनको
जिनकी आँखों में वह हिलोरें ले रहा था।