तुम्हारे जीवन का स्केच | रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति

तुम्हारे जीवन का स्केच | रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति

पत्थरों की दुनिया में तुम साँस लेती हुई फूल हो 
जिन पर कुछ भी आसानी से नहीं लिखा जा सकता

इतिहास के जिस किले के सामने तुम खड़ी हो 
वह सूरज की किरणों से नहीं 
वक्त की सबसे क्रूर क्रूरताओं से बना है 
आज वह किला पत्थरों से बने एक 
विशाल आकार में तब्दील हो गया है

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जहाँ कभी कविताएँ और प्रेम झरोखों में रहते थे 
वहाँ अब खाली हवाएँ गुजर रही हैं 
तुमने महसूस किया है उस सीलन को 
जिसे इतिहास ने अपने कर्मकांडों की तरह 
पत्थरों से बनी दीवारों पर छोड़ दिया है

तुम प्रेम की ज्योति की तरह जलो लेकिन 
पत्थरों की दुनिया में सब कुछ रोशन नहीं होगा 
इतिहास क्रूरताओं को किले में बदल कर सो गया है 
और सच उसकी दीवारों पर घास की तरह उग रहा है

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इतिहास को प्रेम की दीवार पर टाँग लें 
हम उस किले पर क्रूरताओं के खिलाफ घास के फूल हों