मौन हैं आकाश | रमेश चंद्र पंत
मौन हैं आकाश | रमेश चंद्र पंत
बंधु मेरे
यातना यह
और सब कब तक सहें।
चतुर्दिक व्याप्त
गीदड़-भेड़िए
मांस के भुक्खड़
ठसाठस
भर चुके नुक्कड़,
बंद दरवाजे
सभी की खिड़कियाँ
कब तक रहें।
सूर्य-पथ पर
रोज ही दम
तोड़ते अहसास
गुमसुम
मौन है आकाश
उफ ! सहमती
इस हवा के साथ
सब कब तक बहें।