थे स्वार्थ अंधे | रमेश चंद्र पंत
थे स्वार्थ अंधे | रमेश चंद्र पंत
पुल हमें
था जोड़ता जो
ढह गया।
बात थी
कुछ भी नहीं
थे स्वार्थ अंधे
व्यग्र थे
उद्धत बहुत
हाँ, उठे कंधे
एक सूनापन
है मन में,
गड़ गया।
थे गलत
कोई नहीं
पर कौन सुनता
बर्छियाँ
ताने सभी
थे, कौन झुकता
मन कहीं
सूखी नदी-सा
हो गया।