छोड़कर घर-गाँव | रमेश चंद्र पंत

छोड़कर घर-गाँव | रमेश चंद्र पंत

छोड़कर घर-गाँव आए
इस नगर में।

खनक सिक्कों की हमें
है खींच लाई
और कुछ देता नहीं
है अब दिखाई
लग रहा अपना न कोई
इस नगर में।

समय ने ऐसे दिए हैं
फेंक पासे
भागते दिन-रात भूखे
और प्यासे
है रचा संसार निर्मम
इस नगर में।

See also  उसका रोना | निशांत

डोर रिश्तों की बचा
पाए कहाँ हैं
बस बिखरते ही गए
हर क्षण यहाँ हैं

जी रहे हैं सब अकेले
इस नगर में।