कविता की भाषा | रति सक्सेना
कविता की भाषा | रति सक्सेना

कविता की भाषा | रति सक्सेना

कविता की भाषा | रति सक्सेना

मेरी कलम की नोक पर एक छलनी लगी है
जिससे महीन बजरी की तरह शब्द छनते जाते हैं
अकसर कुछ शब्दों के हिज्जे, मात्रायें या अर्थ
छलनी में ही फँसे रह जाते है
फिर तो छने शब्दों से
एक तुतलाती भाषा निकलती है
आलोचकों का कहना है कि
तुतलाती भाषा में कविता नहीं हो सकती
व्याकरण शास्त्री भाषा पर ही सवाल उठाते हैं
मैं छलनी में फँसे हिज्जों को
मात्राओं को और अर्थों को
खींच कर बाहर निकालती हूँ
और भाषा पर लगा देती हूँ
कविता अब भी नहीं
क्योंकि शब्दों पर प्लास्टर चढ़ चुका है
समालोचकों को सन्देह है
अब मैं चलनी और भाषा को छोड़
केवल भाव को उठाती हूँ
और डोर बाँध आसमान की ओर उड़ा देती हूँ
मेरी कविता जमीन पर चलती हुई
आसमान का चेहरा देखती है
मेरी कलम की नोक पर
अब कोई छलनी नहीं
किसी समालोचक की निगाह
अब मेरी कविता पर नहीं

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