जीवन में हम गजलों जैसा
होना भूल गए

जोड़-जोड़कर रखे काफिये
सुख-सुविधाओं के
और साथ में कुछ रदीफ
उजली आशाओं के
शब्दों में लेकिन मीठापन
बोना भूल गए

सुबह-शाम-से दो मिसरों में
साँसें बीत रहीं
सिर्फ उलझनें ही लम्हा-दर-
लम्हा जीत रहीं
लगता विश्वासों में छंद
पिरोना भूल गए

करते रहे हमेशा तुकबंदी
व्यवहारों की
फिक्र नहीं की आँगन में
उठती दीवारों की
शायद रिश्तों में गजलियत
सँजोना भूल गए

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