शहर में रहकर, अजब वीरान में हूँ,
आजकल मैं एक रेगिस्तान में हूँ।

सरस्वती उम्मीद
आशंकित हुआ मन
खोजता है
ढूँढ़ रिश्तों में हरापन
था कभी संदर्भ मैं जीवित क्षणों का
किंतु अब भूले हुए आख्यान में हूँ।

उग रही है
कंकरीटों की इमारत
थी वहाँ कल
पेड़ पौधों की इबारत
मिट गई सारी इबारत स्लेट पर से
आजकल खोई हुई पहचान में हूँ।

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चुक गई बहती नदी
सूखे सरोवर
हो गए बेआब
हँसते हुए निर्झर
भूल संस्कृति की विजय गाथा पुरानी
सभ्यताओं के पराजित गान में हूँ।

पत्थरों पर
सिर पटकतीं प्रार्थनाएँ
बर्फ-सी जड़
हो चुकीं संवेदनाएँ
काठ की तलवार बनकर रह गया मैं
और अब तो जंग खाई म्यान में हूँ।