फोन पर आवाज सुनकर | यश मालवीय

फोन पर आवाज सुनकर | यश मालवीय

फोन पर आवाज सुनकर
तुम्हें थोड़ी देर गुनकर
जिंदगी से भेंट जैसे हो गई
डायरी में खिल उठे पन्ने कई
समय अक्टूबर हुआ भूला मई।

गीत वो दालान वाले
धान वाले पान वाले
दिए रखने लगे मन में
नयन वो वरदान वाले

शब्द वाले फूल चुनकर
रोशनी की रुई धुनकर
जिंदगी से भेंट जैसे हो गई
आज पहनी सुबह ने साड़ी नई
रास्ते सज उठे काही-कत्थई।

ओस में भीगे दुशाले
फूल पर ठहरे उजाले
गहन अलसाए पहर में
नींद से जागे शिवाले

स्वेटरों-सा स्वप्न बुनकर
‘उर्वशी’ लिख उठे दिनकर
जिंदगी से भेंट जैसे हो गई
‘कनुप्रिया’ समझी, बिहारी सतसई
सुरमई सच हुआ सहसा चंपई।

यश मालवीय की रचनाएँ

हम मुगलसराय हुए | यश मालवीय

हम मुगलसराय हुए | यश मालवीय हम मुगलसराय हुए | यश मालवीय स्टेशन की किच-किचऔर हाय-हाय हुएहम मुगलसराय हुए बहुत बड़े जंक्शन कीअपनी तकलीफें हैंगाड़ी का शोर औरसपनों की चीखें हैंसुबह की बनी रखीदुपहर की चाय हुएहम मुगलसराय हुए ताले-जंजीरें हैंनजरें शमशीरें हैंशयनयान में जागींउचटी तकदीरें हैंधुंध-धुआँ कुहरे सेधूप के बजाय हुएहम मुगलसराय हुए साँस-साँस…

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हम तो सिर्फ नमस्ते हैं | यश मालवीय

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शब्द का सच | यश मालवीय

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विष बुझी हवाएँ | यश मालवीय

विष बुझी हवाएँ | यश मालवीय विष बुझी हवाएँ | यश मालवीय नीम अँधेराकड़वी चुप्पीऔ’ विष बुझी हवाएँहुई कसैलीसद्भावों कीवह अनमोल कथाएँ बचे बाढ़ से पिछली बरखासूखे में ही डूबेकोमा में आए सपनों केधरे रहे मंसूबेफिसलन वालीकीचड़-काईठगी ठगी सुविधाएँमन की उथलीछिछली नदियाकी अपनी सीमाएँ यह आदिम आतंक डंक साघायल हुए परस्परअलग अलग कमरों में पूजेअपने-अपने…

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यात्राएँ समय की

एक झरनाथा कि फिर संतूर का स्वरमौन की घाटी उतरता है टूटता शीशासघन सी चुप्पियों काधूप में चमकेहरापन पत्तियों काफूल कोईपंखुरी के श्वेत अक्षरहोंठ पर चुपचाप धरता है शब्द केनिःशब्द होने की कथा साउगे सूरजपर्व की प्रेरक प्रथा सायाद का क्षणगंध के कपड़े पहनकरखुली अँजुरी से बिखरता है। बर्फ पर पदचिह्नयात्राएँ समय कीमिली पगडंडीकिसी भूले…

माँ का अप्रासंगिक होना

जाती हुई धूप संध्या कीसेंक रही है माँअपना अप्रासंगिक होनादेख रही है माँ भरा हुआ घर हैनाती पोतों से, बच्चों सेअनबोला बहुओं के बोलेबंद खिड़कियों सेदिन भर पकी उम्र के घुटनेटेक रही है माँ फूली सरसों नहीं रहीअब खेतों में मन केपिता नहीं हैं अब नस नसक्या कंगन सी खनकेरस्ता थकी हुई यादों काछेंक रही…

मुंबई | यश मालवीय

मुंबई | यश मालवीय मुंबई | यश मालवीय साँस साँसबस अपने लिए तरसना होता हैसुबह हुईजूते के फीते कसना होता है लेनी पड़ती होड़ बसों सेलोकल ट्रेनों सेफूल फूल सपनों की लाशेंन उठती क्रेनों सेगर्दन तक गहरे दलदल मेंधँसना होता है सिर ही सिर सीढ़ी पर उगतेभीड़ समंदर होतीबोरीवली बांद्रा वीटीबोरीबंदर होतीपहिया लेकर चक्रव्यूह मेंफँसना…

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भीड़ से भागे हुओं ने | यश मालवीय भीड़ से भागे हुओं ने | यश मालवीय भीड़ से भागे हुओं ने भीड़ कर दीएक दुनिया कई हिस्सों मेंकुतर ली सिर्फ ऐसी औरतैसी में रहेरहे होकरजिंदगी भर असलहेजब हुई जरूरतआँख भर ली रोशनी की आँख मेंभरकर अँधेराआइनों में स्वयं कोघूरा तरेरावक्त ने हर होंठ परआलपिन धर…

बोलकर तुमसे | यश मालवीय

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चित्र हमने हैं उकेरेआँधियों में भी दियों केहमें अनदेखा करो मतफूल हैं हम हाशियों के करो तो महसूसभीनी गंध है फैली हमारीहैं हमीं में छुपेतुलसी-जायसी, मीरा-बिहारीहमें चेहरे छल न सकतेधर्म के या जातियों के मंच का अस्तित्व हम सेहम भले नेपथ्य में हैंमाथे की सलवटों सजतेजिंदगी के कथ्य में हैंधूप हैं मन की, हमीं हैंमेघ…