गूँजता एकांत
कमरे चीखते हैं
तुम नहीं हो
नहीं चावल बीनता कोई
पंछियों की
मौन भाषा चीन्हता कोई
चहक तीखी हुई
बेबस दीखते हैं
मुँडेरों पर
आँख सूनी और सूनापन
अलगनी पर
टाँग दें क्या आज खाली मन
अकेले में आह
जीना सीखते हैं
निचुड़ता मन
याद में भीगे अँगरखे सा
गुजरता दिन
औपचारिक चले चरखे सा
व्यर्थ अपने आप
पर ही खीझते हैं