कागज की कविता | मंगलेश डबराल

कागज की कविता | मंगलेश डबराल

वे कागज जो हमारे जीवन में कभी अनिवार्य थे एक दिन रद्दी बनकर चारों ओर जमा हो जाते हैं। जब हम सोने जाते हैं तब भी वे हमें दिखाई देते हैं। वे हमारे स्वप्नों को रोक लेते हैं। सुबह जब हम अनिद्रा की शिकायत करते हैं तो इसकी मुख्य वजह यही है कि हम उन कागजों से घिरे सो रहे थे। चाहते हुए भी हम उन्हें बेच नहीं पाते क्योंकि उनमें हमारे सामान्य व्यवहार दबे होते हैं जिन्हें हम अपने से बताते हुए भी कतराते हैं। लिहाजा हम फाड़ने बैठ जाते हैं तमाम फालतू कागजों को।

See also  हिंद-महिमा

इस तरह फाड़ दी जाती हैं पुरानी चिट्ठियाँ जो हमारे बुरे वक्त में प्रियजनों ने हमें लिखी थीं। हमारे असफल प्रेम के दस्तावेज चिंदी चिंदी हो जाते हैं। कुछ प्रमुख कवियों की कविताएँ भी फट जाती हैं। नष्ट हो चुकते हैं वे शब्द जिनके बारे में हमने सोचा था कि इनसे मनुष्यता की भूख मिटेगी। अब इन कागजों से किसी बच्चे की नाव भी नहीं बन सकती और न थोड़ी दूर उड़कर वापस लौट आनेवाला जहाज।

See also  काँटोंवाली बाड़ | आरती

अब हम लगभग निश्शब्द हैं। हम नहीं जानते कि क्या करें। हमारे पास कोई रास्ता नहीं बचा कागजों को फाड़ते रहने के सिवा।