जीवन की इस कला पर | प्रेमशंकर शुक्ला | हिंदी कविता
जीवन की इस कला पर | प्रेमशंकर शुक्ला | हिंदी कविता

कितने आँसुओं से
भीगी है
यह हँसी

पी कर
कितना अपमान
कितना अँधेरा
ठेल कर
फूटी है
यह दूधिया उजास

हँस रहा आदमी
हताशा को धकिया
लग रहा
कितना पूरंपूर
मोहित हूँ भरपूर
मैं तो –
जीवन की इस कला पर।

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