ज़ीने की ईटें | प्रेमशंकर मिश्र
ज़ीने की ईटें | प्रेमशंकर मिश्र
एक से एक सटकर
एक पर एक चढ़कर
जमीन आसमान का कुलाबा मिलाने वाले
फितरती कारीगर के हाथ पकड़कर
आखिर
ये अंजान बेजबान इकाइयाँ
क्या कहती है?
जीने की ईटें।
जीने की ईटें
यह क्यों नहीं सोचतीं
कि इनकी अपनी मिट्टी में
कितनी रेत मिलाई गई है।
कितने दुलार सवार से
इन्हें अपने साँचे में ढाला गया है।
जीने की ईटें
यह क्यों नहीं समझतीं
कि इनकी चर्बी की आहुति ही
ठेकेदार के मुट्ठे की आँच है
और
इसी आँच में
कौड़ियों के मोल खरीदी हुई
खून की शराब
बूँदों बूँदों में चुलाई जाती है
जीने की ईटें
यह क्यों नहीं सोचतीं
कि इनके चारों ओर
एक तिहाई काली मिट्टी मिली हुई
नकली सीमेंट दी गई है
ताकि फिलहाल
इन्हें इंसान के जूतों की कीलें
न चुभें
और
ये यूँ ही भ्रम में पड़ी
जुड़ती चलें जुड़ती चलें
तब तक
जब तक
अमृत वाले चाँद के उस रूप को
जिसमें
कितनी हूरें और अप्सराएँ समा गई हैं
जिसने शंकर के विष की ज्वाला बुझाई है
ये शैतान के कुत्ते नोच न डालेंऊपर नीचे
पूरब पश्चिम
सब पिचक कर
केवल राकेट ही राकेट रह जाए
और
महाध्वंस का निर्माण साकार हो जाए।
जीने की ईटें
काश! इन्हें अपनी शक्ति का आभास मिलता
काश! वह यह समझ सकतीं
कि इनके कंधे पर बंदूक रखकर
शिकार कोई और करता है
तो शायद
यह ताज, यह मीनार, यह पिरामिड
और यह दीवार
गरज की सातों अचरज का मोल फिर से लगता
अभागिन सुहागिनें बाँझ न रह जातीं
झोपडियों के लाल
धरती का भार उठा लेते,
मैं सोचता हूँ
क्या है
जीने की ईटें?