प्रेमिका की कविता | प्रीतिधारा सामल

प्रेमिका की कविता | प्रीतिधारा सामल

किसी को अच्छा लगे, न लगे
लिखूँगी
कोई सुने या न सुने, कहूँगी
मद्यप को मद अच्छा लगे
वह पीता है
गँजेड़ी को गाँजा अच्छा लगता
कश खींचता
तुम्हारे लिए अप्रिय होने पर भी सच
कविता का नशा चढ़ने पर
मैं मात उठती –
कविता है मेरा अनावृत्त प्रेम
प्रेम मेरी एकांत कविता
तभी तो
छूट नहीं सकी कभी प्रेम के दाय से
उतार न सकी उसका ऋण

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सहज नहीं दुनिया के आगे
प्रेमिका की स्पर्धा ले खड़ी होना
समाज की आँख में काँटा बनना
चारों ओर प्रेम के शत्रु
सड़क पर, मंदिर में, पार्क में, पार्लर में

कविता के लिए शब्द नहीं
साहस चाहिए, प्रेम नहीं प्रत्यय
प्रेम की एक घड़ी
ययाति को यौवन देती
तारा को आयुष
मृत्यु को देती सांत्वना
कवि को विश्वास

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तुम करते समाज की बात
जब कि
समाज में कहीं नहीं होते,
प्रेमिका किंतु छल नहीं पाती शब्द को
कविता ही उसकी जमानबंदी
जितना पाप-पुण्य का चिट्ठा
निःसंकोच हो समाज के आगे रख दे
शब्द की नौका बहा
पहुँच जाती प्रेमिक के पास
लिप्त होती अभिसार में

फर्क इतना कि तुम छुपे-छुपे रात के अँधेरे में जो करते
वही काम करती प्रेमिका कविता में
उजाले में निर्द्वंद्व हो
हाथ हिला बुलाती प्रेमी को
आलिंगन करती
उसके प्रेम को नजर न लगे, आँचल में ढाँप दे

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