ठेलुआ | प्रमोद कुमार तिवारी

ठेलुआ | प्रमोद कुमार तिवारी

मेरा एक दोस्त था
नहीं है
नहीं-नहीं था
खैर छोड़िए, नहीं पता
था या है
पर जब साथ होता
तो फुर्र से उड़ जाता समय
हर खेल में मैं बनाता उसे गोंइया
जब आसमान से बातें करती उसकी गुल्ली
तो देता अपने काल्पनिक मूँछों पर ताव।

ठेलुआ
सुख से ज्यादा दुख का साथी
फसल मेरी गाय बर्बाद करती
डाँट सुनता वो,
ईख उखाड़ता मैं, मालिक उसे मारता।
उस समय मैं सातवीं में था
जब ससुराल से आई खास मिठाई दी थी उसने
मिठाई के भीतर से शानदार अठन्नी निकली थी
मिठाई से बहुत ज्यादा मीठी।

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उसका नाम मुझे पसंद न था,
कभी-कभी मैं पूछता, उसके नाम का मतलब
वह बोलता – क्या यार, नाम तो बस नाम है
बहुत पूछने पर कहता
जैसे घुरफेंकना है, बेचुआ है, कमरुआ है
वैसे ही ठेलुआ है
काफी शोध के बाद पता चला
माँ ने उसका नाम रामलाल रखा था
पर वह सिर्फ और सिर्फ ठेलुआ था
ज्यादा से ज्यादा ‘मुसना’ का बेटा ठेलुआ।
उसे ठेलुजी कहना कुछ ऐसा
जैसे ठाकुर हुंकार सिंह के सिर पर
गोबर की खाँची रखना
या परमेसर मिसिर की गंगाजली में
मूस का तैरना

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शायद आपने भी महसूसा हो
शहर की घड़ियाँ गाँवों से बहुत तेज दौड़ती हैं
कुछ दिनों बाद जब गाँव लौटा तो
सड़कें चमकदार और चेहरे धूसर हो चले थे।
दोस्त मिला रास्ते में
संकोच के साथ पहली बार
किया नमस्ते
यंत्रवत उठे थे उसके हाथ
गौर किया मैंने, दोस्त कहीं नहीं था
ठेलुआ ने तिवारीजी को सलाम ठोंका था
पूछा, कैसे हो?
कुछ ज्यादा ही परिपक्व आँखों से देखते हुए बोला
अच्छा हूँ जी
पता चला,
बनारस में रिक्शा खींच रहा है उसकी जिंदगी
ठाट से।
बच्चे?
दो हैं जी, दो भगवान के पास चले गए
अच्छे हैं
बड़का बहुत होशियार है
सेठ के यहाँ तेजी से काम सीख रहा है।
और छुटकी तो सारा घर सँभाल लेती है
नाम क्या हैं उनके?
गबरा और टुनिया
इन नामों का मतलब?
क्या पंडीज्जी आप भी!
नाम तो बस नाम होवे है।

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