सुर्खाब | प्रतिभा गोटीवाले

सुर्खाब | प्रतिभा गोटीवाले

छुप छुप कर मेरे घर में 
रहती हैं एक सुर्खाब 
हौले से निकल आते है बाहर 
उसके सुंदर पंख 
जब घर के लोग 
निकल जाते है 
अपने अपने कामों पर 
घंटों उड़ती फिरती हैं वो 
अपने सपनों के आकाश में उन्मुक्त 
जी आती हैं 
सैकड़ों अनजीये पल 
छू आती हैं जाने कितनी ही 
अनछुई ऊँचाइयाँ, गहराइयाँ 
और फिर यकायक 
सुनकर आहट दरवाजे पर 
फिर उतर आती हैं 
धरती पर 
जल्दी से पंखों को समेट लेती हैं 
दुपट्टे में 
और जलाकर अपनी उड़ान के 
सारे सबूत 
बनाती है काजल 
आँज लेती हैं आँखों में 
अनजीये पलों को 
जीने की मुस्कुराहट 
सजा लेती हैं होंठों पर 
शाम होते ही औरत में 
तब्दील हो जाती हैं 
सुर्खाब। 
(कल जब दुपट्टा मुझे छू के निकल गया था, 
हाथों में आ गया था मेरे 
उसका एक टूटा हुआ पर।)

See also  पगडंडी | अवनीश सिंह चौहान