काश-२ | प्रतिभा गोटीवाले
काश-२ | प्रतिभा गोटीवाले
कल खोलते ही अलमारी
आ गया था हाथों में…
तुम्हारी साड़ी का आँचल
और बरबस ही
हँस पड़ा था मैं देखकर
किनारे पर बँधी गाँठें
जब ढूँढ़ते ढूँढ़ते कोई चीज
परेशान हो जाती थी तुम
तो बांध लेती थी
एक गाँठ पल्लू में
और मिल जाती थी
खोई चीजें
सोचता हूँ
काश… ऐसा हो
मैं भी बांधू एक गाँठ
और मिल जाओ …तुम।