जब गाँव में थे | नेहा नरूका

जब गाँव में थे | नेहा नरूका

जल्द से जल्द शहर पहुँच जाने का ख्वाब था
मिट्टी की सौंधी महक गोबर की बुसबुसाहट
भूसे का ढेर चिड़ियों की चहचहाहट
सब बक थे
माने एक प्रलाप
सुबह पाठशाला जाना शाम को बकरी चराना
बीनना लकड़ी-बीनना सिलना
भोजन पकाने और नए कपड़े खरीदने का बस यही एक साधन

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जब गाँव में थे
बिरजू चरवाहे का घूर-घूर कर देखना
भगवान सिंह सरपंच का पीकर दहाड़ना
बात-बात पर टोलेभर की बंदूकों का मचलना
गाँव भयावह लगता था उन दिनों

जब गाँव में थे
शहर के चमकीले दृश्य दूरदर्शन के माध्यम से घुस चुके थे
गाँव में हर गाँववासी बनना चाहता था
‘बड़ा आदमी’
और बड़ा आदमी बनने के इस सपने में
गाँव एक बाधा की तरह आता
हर रोज

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गाँव में न ढंग का विद्यालय था
गाँव में न अस्पताल था
गाँव में न भाषा थी
गाँव में न सभ्यता थी
न शिक्षा
न शहरों-सा था तेजपन
गाँव धीमा था… और ढीला भी
पर सपनों से तर शहर स्वर्ग था और गाँव नर्क
जब गाँव में थे
तो सिद्धांतों की जगह
शहर पहुँचने की योजनाएँ थी मस्तिष्क में
धीरे-धीरे ये सफल हुईं गाँव रीतता गया शहर भरता गया
भीड़ से
गाँव के गाँव
समा गए जब शहर में
तब यह भारत ‘विकसित इंडिया’ बन गया

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