मन | नीरज पांडेय
मन | नीरज पांडेय

मन | नीरज पांडेय

मन | नीरज पांडेय

मन है 
बउँड़ियाता रहता है 
कभी कहीं जाएगा 
कभी कहीं

हम 
समझाते रहते हैं 
कि बेटा हर जगह जाना 
लेकिन बनते पुल के नीचे 
और नए बने पुल के उपर न जाना

मेड़ डाँड़ थाम लेना 
कोलिया अँतरा हेर लेना 
सरपताही वाली पगडंडी पकड़ लेना 
बाँस की चहली से नदी नाला पार हो जाना 
कुछ न मिले 
तो पउँड़ के चले जाना 
लेकिन बनते पुल के नीचे 
और नए बने पुल के उपर न जाना 
कब गिर भहरा जाय 
कुछ पता नहीं

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लेकिन तुम हो कि मानते ही नहीं 
मन को समझाओ अपने 
कि शहर में रहा करे 
सुबह-सुबह लक्ष्मी चौराहा 
घाम चढ़े नेतराम 
दोपहर लल्ला की चुंगी 
शुरुआती शाम प्रयाग स्टेशन 
गहराती शाम किसी सब्जी की दुकान 
और रात में अपने सपनों की राजधानी में 
भाग जाया करो

आदमियों की तो जाने दो 
बनते पुलों के भी दिन खराब चल रहे हैं 
नहीं मानोगे 
और यूँ ही बहँकते रहोगे 
पक्का एक दिन सरकारी करमदंड भोगोगे!

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