सारा शहर डूबा है | धीरज श्रीवास्तव
सारा शहर डूबा है | धीरज श्रीवास्तव
चारों तरफ हरहराती बाढ़ की विभीषिका
बाढ़ का चक्रवात दृश्य
कमर तक खड़ा बाढ़ में
अपने सामानों को
पीठ पर लादे ढो रहा हूँ।
गली-नाले, नुक्कड़, पेड़-पौधे
सारे घर-भवन पानी का रेगिस्तान
छतों पर चढ़े चिल्लाते लोग
मदद को पुकारते हैं।
मैं शून्य-मूक-सा बना
देखता-सुनता हूँ
हर तरफ जल ही जल का जाल
तैरते उस पर दुर्गंध के अधिजाल।
हाहाकार मचा है सबके मन में
भय, दुख, छोभ का साम्राज्य है मुख में।
बस्ती उजड़ी, नगर उजड़ा
उजड़ा पड़ा है सारा घर संसार
फिक्र नहीं लोगों को अपने सपनों का
बहते हैं हर-साल,
नदियों की बाढ़ की तरह।
गिद्ध और चीलों की मौज़ बन आई
गरीबों का माँस नोच-नोच उड़ जाते
दूर खड़े देखते हैं सारा दृश्य
कुछ न कर, चुपचाप चले जाते।
आती है बाढ़ हर साल
इक महमा़री की तरह
बहा ले जाती सबके अरमान
रेगिस्तान की रेत की तरह
निगाह उठती है, देखता हूँ
सारा शहर डूबा हुआ नजर आता है !