घोंसला | धीरज श्रीवास्तव

घोंसला | धीरज श्रीवास्तव

दूर-दूर उड़ते आसमानों में
ये पक्षियों के झुंड
मंजिल की तलाश में
फिरते हैं मारे-मारे।

तिनका-तिनका जोड़कर
घोंसला बनाते हैं
रात होती, दिखाई न देता
बेचैन हो, खोजते-फिरते
अपना आशियाना, इधर-उधर।

बच्चे जब चिल्ला उठते हैं
चोंचों से दाना खिलाते हैं
खुद भूखे रहकर बच्चों का पेट भरते हैं
मात-पिता का अनोखा अपनापन।
बड़े हो बच्चे, माँ-बाप भूल
उड़ जाते हैं, आकाश के तले
देखते हैं माँ-बाप
बूढ़ी आँखों से
अपनों का बिछुड़ना
साथ छोड़कर उड़ जाना
मृगतृष्णा में भटकना।

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बिखर जाते हैं
तिनके-तिनके होकर
आशाओं के पाए
माँ-बाप के सपने तोड़
उम्मीदों की चिता जला
उड़ जाते हैं, दूर-दूर
ये आने वाले साए।