आवाज आग भी तो हो सकती है | दिविक रमेश

आवाज आग भी तो हो सकती है | दिविक रमेश

देखे हैं मैंने
तालियों के जंगल और बियाबान भी।
बहुत खामोश होते हैं तालियों के बियाबान
और बहुत नीचे आ जाया करते हैं
तालियों की गड़गड़ाहट से आसमान।

कठिन कहां होता है
बहुत आसान होता है
समझ लेना अर्थ तालियों का
मुखरित या खामोश होती आवाज का।

पर देखा है मैंने एक ऐसा भी हलका
जहां कठिन होता था
आवाज का अर्थ लगाना।

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वह हलका था मेरी मां की हथेलियों का
या उन हथेलियों का
जो आज भी फॆलाती हैं रोटियां
हथेलियों की थाप से।
हथेलियों के बीच रख लोई
थपथपाती थी मां
और रोटी आकार लेती थी
हथेलियों की आवाज में।
बहुत गहरी होती है आवाज थाप की।
कभी कम होती है
कभी ज़्यादा
पर खामोश नहीं होती।
खामोश होती थी तो मां
या वे
जो देती हैं आकार आज भी रोटियों को
हथेलियों की थाप से।

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निगाह जब, बस रोटी पर हो
तो कहां समझ पाता है कोई अर्थ
थाप का
कम या ज्यादा आवाज का।
उपेक्षित रह जाती है आवाज
जैसे उपेक्षित रह जाती थी मां
या वे सब
जो देती हैं आकार आज भी रोटियों को
हथेलियों की थाप से।
पा लेती हैं आवाज आकार लेती रोटियां

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पर कहां पाती है आवाज
वे आंखें
जो फैलती हैं साथ-साथ
लोई से बदलती हुई रोटी में
और रचती हैं एक लय
हथेलियों और तवे में,
तवे और आग में,
और फिर आग और तवे में
तवे और थाली में।

क्यों लगता है
आवाज आग भी तो हो सकती है
भले ही वह
चूल्हे ही की क्यों न हो, खामोश।