कुहरे में भोपाल | त्रिलोचन

कुहरा ही कुहरा है। इस कुहरे का चलना,
फिरना साफ झलक जाता है। घना घना है
इस सफेद चादर का पवन वेग से टलना,
बार बार दिखता है। कितना रम्य बना है,

सूरज का उगना। पूरब के क्षितिज पर दिखी
उषा। पेड़ कुहरे में खोए हैं। पहाड़ियाँ
कहाँ ‘अरेरा’ कहाँ ‘श्यामला’; भूमि पर लिखी
हरियाली के साथ छिपी हैं विरल झाड़ियाँ।

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ठंडक जैसी भी हो, टहला जा सकता है
बड़े मजे से। सड़कों पर भी कुहरा छाया
है। भोपाल रूप क्या ऐसा पा सकता है
जब चाहे, पुल पास बान गंगा का आया।

कुहरे का घाटी से उठ-उठ कर लहराना
सर्दी का है अपनी विजय-ध्वजा फहराना।