आदमी को प्यास लगती है | ज्ञानेन्द्रपति
आदमी को प्यास लगती है | ज्ञानेन्द्रपति

आदमी को प्यास लगती है | ज्ञानेन्द्रपति

आदमी को प्यास लगती है | ज्ञानेन्द्रपति

कालोनी के मध्यवर्ती पार्क में
जो एक हैंडपंप है
भरी दोपहर वहाँ
दो जने पानी पी रहे हैं
अपनी बारी में एक जना चाँपे चलाए जा रहा है हैंडपंप का हत्था
दूसरा झुक कर पानी पी रहा है ओक से
छक कर पानी पी, चेहरा धो रहा है वह बार-बार
मार्च-अखीर का दिन तपने लगा है, चेहरा सँवलने लगा है,
 कंठ रहने लगा है हरदम खुश्क
ऊपर, अपने फ्लैट की खुली खिड़की से देखता हूँ मैं
ये दोनों वे ही सेल्समैन हैं
थोड़ी देर पहले बजाई थी जिन्होंने मेरे घर की घंटी
और दरवाजा खोलते ही मैं झुँझलाया था
भरी दोपहर बाजार की गोहार पर के चैन को झिंझोड़े
 यह बेजा खलल मुझे बर्दाश्त नहीं
‘दुनिया-भर में नंबर एक’ – या ऐसा ही कुछ भी बोलने से उन्हें बरजते हुए
भेड़े थे मैंने किवाड़
और अपने भारी थैले उठाए
शर्मिंदा, वे उतरते गए थे सीढ़ियाँ

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ऊपर से देखता हूँ
हैंडपंप पर वे पानी पी रहे हैं
उनके भारी थैले थोड़ी दूर पर रखे हैं एहतियात से, उन्हीं के ऊपर
तनिक कुम्हलाई उनकी अनिवार्य मुस्कान और मटियाया हुआ दुर्निवार उत्साह
गीले न हो जाएँ जूते-मोजे इसलिए पैरों को वे भरसक छितराए हुए हैं
गीली न हो जाए कंठकस टाई इसलिए उसे नीचे से उठा कर
गले में लपेट-सा लिया है, अँगौछे की तरह
झुक कर ओक से पानी पीते हुए
कालोनी की इमारतें दिखाई नहीं देतीं
एक पल को कस्बे के कुएँ की जगत का भरम होता है
देख पा रहा हूँ उन्हें
वे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पाद नहीं हैं
भारतीय मनुष्यों के उत्पाद हैं
वे भारतीय मनुष्य हैं – अपने ही भाई-बंद
भारतीय मनुष्य – जिनका श्रम सस्ता है
विश्व-बाजार की भूरी आँख
जिनकी जेब पर ही नहीं
जिगर पर भी गड़ी है ।

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