माँ मेरे अकेलेपन के बारे में सोच रही है पानी गिर नहीं रहा पर गिर सकता है किसी भी समय मुझे बाहर जाना है और माँ चुप है कि मुझे बाहर जाना है
यह तय है कि मैं बाहर जाऊँगा तो माँ को भूल जाऊँगा जैसे मैं भूल जाऊँगा उसकी कटोरी उसका गिलास वह सफेद साड़ी जिसमें काली किनारी है मैं एकदम भूल जाऊँगा जिसे इस समूची दुनिया में माँ और सिर्फ मेरी माँ पहनती है
उसके बाद सर्दियाँ आ जाएँगी और मैंने देखा है कि सर्दियाँ जब भी आती हैं तो माँ थोड़ा और झुक जाती है अपनी परछाईं की तरफ ऊन के बारे में उसके विचार बहुत सख्त है मृत्यु के बारे में बेहद कोमल पक्षियों के बारे में वह कभी कुछ नहीं कहती हालाँकि नींद में वह खुद एक पक्षी की तरह लगती है
जब वह बहुत ज्यादा थक जाती है तो उठा लेती है सुई और तागा मैंने देखा है कि जब सब सो जाते हैं तो सुई चलाने वाले उसके हाथ देर रात तक समय को धीरे-धीरे सिलते हैं जैसे वह मेरा फटा हुआ कुर्ता हो
पिछले साठ बरसों से एक सुई और तागे के बीच दबी हुई है माँ हालाँकि वह खुद एक करघा है जिस पर साठ बरस बुने गए हैं धीरे-धीरे तह पर तह खूब मोटे और गझिन और खुरदुरे साठ बरस
होंठ | केदारनाथ सिंह होंठ | केदारनाथ सिंह हर सुबहहोंठों को चाहिए कोई एक नामयानी एक खूब लाल और गाढ़ा-सा शहदजो सिर्फ मनुष्य की देह से टपकता है कई बारदेह से अलगजीना चाहते हैं होंठवे थरथराना-छटपटाना चाहते हैंदेह से अलगफिर यह जानकरकि यह संभव नहींवे पी लेते हैं अपना सारा गुस्साऔर गुनगुनाने लगते हैंअपनी जगह…
सृष्टि पर पहरा | केदारनाथ सिंह सृष्टि पर पहरा | केदारनाथ सिंह जड़ों की डगमग खड़ाऊँ पहनेवह सामने खड़ा थासिवान का प्रहरीजैसे मुक्तिबोध का ब्रह्मराक्षस -एक सूखता हुआ लंबा झरनाठ वृक्षजिसके शीर्ष पर हिल रहेतीन-चार पत्ते कितना भव्य थाएक सूखते हुए वृक्ष की फुनगी परमहज तीन-चार पत्तों का हिलना उस विकट सुखाड़ मेंसृष्टि पर पहरा…
सूर्यास्त के बाद एक अँधेरी बस्ती से गुजरते हुए | केदारनाथ सिंह सूर्यास्त के बाद एक अँधेरी बस्ती से गुजरते हुए | केदारनाथ सिंह भर लोदूध की धार कीधीमी-धीमी चोटेंदिये की लौ की पहली कँपकँपीआत्मा में भर लो भर लोएक झुकी हुई बूढ़ीनिगाह के सामनेमानस की पहली चौपाई का खुलनाऔर अंतिम दोहे कासुलगना भर लो…
सन ४७ को याद करते हुए | केदारनाथ सिंह सन ४७ को याद करते हुए | केदारनाथ सिंह तुम्हें नूर मियाँ की याद है केदारनाथ सिंहगेहुँए नूर मियाँठिगने नूर मियाँरामगढ़ बाजार से सुरमा बेच करसबसे आखिर मे लौटने वाले नूर मियाँक्या तुम्हें कुछ भी याद है केदारनाथ सिंहतुम्हें याद है मदरसाइमली का पेड़इमामबाड़ा तुम्हें याद…
शाम बेच दी है | केदारनाथ सिंह शाम बेच दी है | केदारनाथ सिंह शाम बेच दी हैभाई, शाम बेच दी हैमैंने शाम बेच दी है! वो मिट्टी के दिन, वो घरौंदों की शाम,वो तन-मन में बिजली की कौंधों की शाम,मदरसों की छुट्टी, वो छंदों की शाम,वो घर भर में गोरस की गंधों की शामवो…