अब भी | कृष्णमोहन झा

अब भी | कृष्णमोहन झा

अगर पहाड़ पर हो
हवा की पीठ पर पाँव रखते हुए आ जाओ
सुदूर घाट पर हो अगर
धारा की लालसा में
आ जाओ तिनका-तिनका बनकर
अनजान देस-दुनिया में हो
तो अपने रुदन और जागरण के सूत को थामे हुए आ जाओ…

जो भी हो
जहाँ भी हो
जैसे भी हो
आ जाओ !

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यदि शब्द हैं तुम्हारे पास
तो उन्हें सेने के लिए एक घोंसला है यहाँ
तुम्हारे पास यदि चुप्पी है
तो उसे तोड़ने के लिए यहाँ उपलब्ध है कातरता
यदि दुख है तुम्हारे पास
तो यहाँ
रोने के लिए एक तकिया और सोने के लिए एक खटिया है।
इस दुनिया को
एक मुट्ठी में भर लेने के लिए बेचैन
किसी योद्धा की तरह नहीं
तुलसीदास की तरह
शव को यदि नाव बनाने की कला में तुम पारंगत हो
तो इसी बगैर नाव की गहरी नदी के बाद
एक सुलगती राह तुम्हें यहाँ तक लाएगी।

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तुम यहाँ पाओगे
कि किसी दुख या आतंक से नहीं
जीवन में पहली बार घटित इस रोमांच से भर गई हैं तुम्हारी आँखें
कि तार-तार हो चुके हरियर बन
और हृदय तक विदीर्ण इस पोखर के बावजूद
जिस घर में तुम पैदा हुए
उसकी देहरी पर रखा हुआ पीतल का जलभरा लोटा
अब भी कर रहा है तुम्हारा इंतजार।

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