अंतराल | कृष्णमोहन झा

अंतराल | कृष्णमोहन झा

उसके ललाट का चंदन 
घाव के निशान में बदल रहा था 
उसकी देह का जनेऊ बन रहा था फाँस 
उसकी राधा देह बेच रही थी 
और उसका जीवन बर्फ की तरह गल रहा था…

विद्यापति को देखा मैंने 
राजकमल चौधरी में बदलते हुए।

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