भइया के लिए | कुमार विक्रम

भइया के लिए | कुमार विक्रम

एक समय ऐसा आया 
जब तुमने अपने दोस्तों से 
रिश्तेदारों से, पड़ोसियों से 
मिलना बंद कर दिया 
अगर सड़क पर वो कहीं दिख जाते 
तो तुम अपना रास्ता बदल लेते थे 
उनके घर आने पर 
अपने कमरे में बंद हो जाते थे 
बल्कि तुम अपने आप में बंद हो गए थे 
और कमरे का बंद होना 
एक सिर्फ औपचारिकता रह गई थी 
तब हम सबसे कहते थे 
‘ऐसी’ कोई बात नहीं है 
बस कमरा बंद कर 
भइया कुछ पढ़ाई कर रहे हैं 
एक झूठ जो कि दरअसल सत्य ही था 
क्यूँकि तुम शायद खुद को 
पढ़ने का प्रयत्न करते रहते थे 
और शायद अपने अंदर लिखे भाव 
उमरते-घुमरते सपनों के अक्षर 
कुछ इस तरह खुरदुरे हो चुके थे 
कि उन्हें करीब से पढ़ने को बार बार 
तुम्हे अपना कमरा बंद करना होता था 
आज बस ऐसा लगता है 
कि शायद तुम अपने समय से 
कुछ ज्यादा आगे निकल गए थे 
क्यूँकि आज सभी तुम्हारे ही तरह 
सबों से आँखें चुराते हुए 
कटे-कटे से 
अपने अपने कमरों में बंद से हो गए है 
और अब तो बाहर यह बतलाने के लिए भी 
कोई नहीं बैठा है कि वो कुछ पढ़ रहे हैं 
सचमुच मन मसोस कर ही रह जाता हूँ 
कि गर आज के दौर में तुम जीवित होते 
तो सुखी, संपन्न और सफल व्यक्ति होते

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