सप्त-ऋषि | कुमार अनुपम
सप्त-ऋषि | कुमार अनुपम

सप्त-ऋषि | कुमार अनुपम

विकट रात में सप्त-ऋषि की तरह टिमटिमाते हुए कुल सात थे वे

दिन भर अपनी ही खबर की तलाश में दरबदर दफ्तर दफ्तर की खाक से रँगते हुए अपने बाल

फिलहाल इस घोर रात में अपनी अपनी खामोशी और थकान में एक साथ कुल सात थे वे

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अपने अपने स्वप्नों के समुद्र में सरापा डूबे थे और कभी कभी उनकी बेबसी का सुर्ख फूल

खिलता तब उनका चेहरा चमकता था

कैसे जाते घर, लेकर अपना चेहरा जो जर्द होने से पूर्व कभी कभी हो जाता था शर्म से सुर्ख

यूँ हो गई थी डुमोडुम धुएँ से आकाशगंगा लेकिन भीतर उनके जाने कितनी आग थी और

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जाने कितना धुआँ कि फक्क पड़ रही थी दुनिया

भीतर उनके दहक रही थी आग और हाथ सेंक रही थी रात

रात सेंक रही थी हाथ किंतु वे बने थे बर्फ

शांत थे वे इसलिए ऋषि थे

उन्हें ही त्याग और बलिदान का उदाहरण बनना था चमकना था इसलिए ऋषि थे

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आदर्शों के शव ढोना मान बैठे थे अपनी नियति इसीलिए ऋषि थे

कफन ओढ़कर बैठे हुए अपने टूटने का करते हुए इंतजार वे कुल सात थे।

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