शरण्य के लिए स्वगत | कुमार अनुपम
शरण्य के लिए स्वगत | कुमार अनुपम

शरण्य के लिए स्वगत | कुमार अनुपम

(केदारनाथ अग्रवाल और धूमिल के प्रति संकोच के साथ)

यहाँ प’ गुंजाइश ही जिंदगी है
मगर य’ इतना सरल नहीं
कि जैसे जूते में डालना पैर
कि तस्मे कसने वाले हाथ
भी तुम्हारे होंगे
याद रख सको या नहीं
तो भी
अपने मन की न होगी मोहलत
औ’ कूच करने को जब पुकारेगा ईमान
तुम्हारा ईश्वर अनाथ होगा
तो प्रिय अनुपम
वक्त रहते शरण की खातिर
अपनी नाप का ढूँढ़ लो जूता एक जोड़ी
– जैसे ढूँढ़े औरों ने और ठुँस गए –
न मिल सके तो ऐसा करना
काट-छाट कर उनकी नाप का ही बनो
बनो
तपो
गलो
ढलो
लेकिन चलो
यहाँ प’ गुंजाइश ही जिंदगी है।
स्तोभक्रिया माने बोलना अर्थहीन शदों के बोल
सुनयनी!
किसी सुगम संकोच में सुनयना तो नहीं कहूँगा तुम्हें
कि संबोधन
कुछ पुरुष-प्रति नहीं लगता क्या
और उर्दू की
इस अप्राकृतिक व्यंजना का मैं कायल नहीं रहा
तुहारे नाम हैं कई एक और सटीक नाम देता हूँ मेरी अनामिका!
छिले सिंघाड़े-सी अपनी आँखें दो सुडौल और तुर्श न करो
न चिढ़ो इस उपमा से कि स्वाद इसका मुझे तृप्त करता है
सुनो ना
तनुश्री दत्ता को देखा है और उसकी आँखें
तुमसे ईर्ष्या करती हैं
नहीं नहीं मेरी अनुपमा!
कोई तुलना नहीं कर रहा
कि तुम तो सपूर्ण निष्णात
आंगिक वाचिक सात्विक और आहार्य से हर प्रकार
और उसे
अभिनय का क ख ग तक नहीं मालूम मेरी रंगोत्तमा!
देखे ना
मैंने तुहें एक और नाम दिया
इसी नाम के नेपथ्य में
मध्यतल में
अड्डिता ध्रुवा का गान करना चाहता हूँ
चतुरश्र ताल और चार सन्निपात के साथ जैसे
शिव ने पार्वती के संग कभी क्रीडा में किया था
ना ना शास्त्र नहीं बखान रहा
कि यही तुम्हारा रंग है गभीर सहज और स्वाभाविक
पर तुम हो कि शकीरा पर क्रेजी
मान जाओ
कि तुम मेरे जेह्न में जिद-सी प्रतिष्ठित हो
इसी एक जिद का श्वेत-श्याम मौन
बरस रहा है धारासार
चार मुट्ठियों में छतरी सहाते बहुविधि
नरगिस राजकपूर की आर्द्र नजरों से एक पारंपरिक चीत्कार-सा
दृश्य में जो चमक रही हैं ज्यादा
वे रोशनियाँ कृत्रिम हैं निरी नकली
दंभ का अकबरनुमा पृथ्वीराज
काँप रहा है थरथर अपनी कुल-मर्यादा समेत
उसकी फूलती हुई साँसें फड़फड़ाती पुराने पन्ने की तरह
उनका चिंदी चिंदी दरकना सुनो, बल मिलेगा
इसी, इसी बल से हुई है जलधार नीली जैसे आसमान
जो छतरी की नोकों से टपक रहा है
अर्पणा कौर की ‘आवारा’ पेंटिंग में और
दोनों कैसा तो सिहरते आधे आधे
भीग रहे हैं
उठी जाती एड़ियों और आतुरता की पुकार और साँसों
से मिलाओ सुर –
प्यार हुआ इकरार हुआ है
प्यार से फिर क्यों डरता है दिल
अब यह जो फिक्क-सी हँसी है तुहारी गलती नहीं है
नहीं मालूम मंजिल को जाता मुश्किल रास्ता
जो भटक भटक गया है धूम धड़ाम और धाँय
और उद्दाम सीन से भरे दौर में
नहीं नहीं तुहारी गलती नहीं है पूरी पूरी जो तुम्हें
जनहित में जारी एक विज्ञापन याद आ रहा है
तुहारी हँसी यह फिक्क-सी अनगढ़
मेरी नसों की जरूरत में बह रही है मेरे जिगर की जानिब
मेरी नीलशिरी!
हमारी संपदा है अतृप्ति सुरक्षित करना चाहता हूँ
हाल फिलहाल
हम स्मृतियों की परंपरा में भीग रहे हैं आधे आधे
एक जर्जर छतरी तले अंधड़ और बरसात से जूझते
एक साथ इस विराट दुनिया में दूभर समीपता के बरक्स
एक सीन भर ही सही गनीमत कम नहीं है
हम जो अंतरंग सीन में बुदबुदाते रहे बाजदफा
संकटों की सरगम एक दूसरे को हाजिर नाजिर मान कर
लेते रहे आह भर आलाप
आरोह अवरोह से साधते ही रहे
जिनगी की ठुमरी बिना किसी बंदिश
उसका अर्थ कौन बूझ सकेगा भला हमारे तुहारे सिवा
अरे कितना तो मधुर
कितना तो नया
जैसे रागों में सरगम अर्थहीन।

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