बेरोजगारों का गीत

चोरी तो करते ही नहीं मूस की तरह

चख लिया बनिया की फितरत का जल

अन्न निरा आगे अब टीस रहे दाँत

छुछुआते फिरते हैं हम बेकल

किसी लोकगीत की टेक-सा जीवन   जो था

कहीं बिला गया 

अँतड़ियों (दुनिया की सर्वाधिक रहस्यमय सुरंग)

में जाने ही किधर

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लहर उमड़ती है

भीतर से कभी 

टिंच-पिंच छवि और गैरत को झिंझोड़ती…

…मोड़ेंगे

मोड़ेंगे…अपनी ही चौहद्दी तोड़ेंगे

घोख घोख पोथन्ना पाई थी जो डिग्री

मय अच्छत-पानी

चरणों पर आपके चढ़ाएँगे

नाचेंगे मटक मटक आगे और पीछे

चाहेंगे जिस धुन में कीर्तन करेंगे

सहेंगे!

जेहि बिधि राखेंगे

वही बिधि रहेंगे!

कहेंगे

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जी हुजूर…

जी हुजूर… भय है

भाग्यविधाता की जय है…जय है…!

(स्मृति की कविता की लय एक अंतर्मन निर्भय किए है।)