अह... हह... | कुमार अनुपम
अह... हह... | कुमार अनुपम

अह… हह… | कुमार अनुपम

पिता की बातें उनके भीतर थीं
उनका प्रेम और क्रोध
मोह और विछोह
घृणा और क्षोभ
उनका प्रतिपक्ष भी उनके पक्ष में ही रहा
जैसे पुरानी लकड़ी में दीमक रहता है

आवाज की गर्द
छनकर आती रही साँस साँस
 

जीवन को रहस्य की तरह दाबे
मरे असमय

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चुनते अगर जीने की विपरीत लय
इतना असह्य न होता क्षय ले डूबा
किसी दार्शनिक खीझ का भय…

अह…
हह…
परवश

अपने पैरों पर टिकी हुई
पृथ्वी-सी
जिसकी करती आई परिक्रमा
सूर्य वह
जाने कब का केंद्र छोड़कर चला गया है

बोलो
अब है कौन तुम्हारा केंद्र
कि किसके वश में हर पल
अब भी
घूम रही हो…?

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