दृष्टि | आस्तिक वाजपेयी

दृष्टि | आस्तिक वाजपेयी

क्या मैं अकेला हो गया ?
कहाँ गए सब लोग ?
उस पेड़ के पीछे से वह चिड़िया
क्या मुझे देख रही है ?
नहीं !
कोई किसी को नहीं देखता,
इन पेड़ों के ऊपर नहीं बैठे यक्ष।
इस शताब्दी की देह में
छिप गया है अंधकार।

कुछ कुंठित नहीं,
हवा भी अंधी है।

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हर ईंट लाल नहीं है,
है ना ?

वह किसी कुत्ते की भौंक है,
या किसी वज्र की गर्जन ?
मैंने देखा था अपनी कल्पना में छिपा,
स्मृति को पकड़े वह बादल जो एक क्षण में गुजर गया।
आँखों में आँसू, अंतहीन दृष्टि,
रेगिस्तान के भीतर छिपे चीटों की
कल्पना से शापित।

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संजय बोलते हैं, “महाराज न विजय हुई,
न पराजय, न धर्म हुआ न अधर्म।”

धृतराष्ट्र देखते हैं रंग।
रात के अँधेरे में बारिश हो रही है।
भूमि लाल हो गई है।