सवाल ज़्यादा है | आलोक धन्वा
सवाल ज़्यादा है | आलोक धन्वा
पुराने शहर उड़ना
चाहते हैं
लेकिन पंख उनके डूबते हैं
अक्सर खून के कीचड़ में!
मैं अभी भी
उनके चौराहों पर कभी
भाषण देता हूँ
जैसा कि मेरा काम रहा
वर्षों से
लेकिन मेरी अपनी ही आवाज़
अब
अजनबी लगती है
मैं अपने भीतर घिरता जा रहा हूँ
सवाल ज़्यादा हैं
और बात करने वाला
कोई-कोई ही मिलता है
हार बड़ी है मनुष्य होने की
फिर भी इतना सामान्य क्यों है जीवन?