उड़ानें | आलोक धन्वा
उड़ानें | आलोक धन्वा

उड़ानें | आलोक धन्वा

उड़ानें | आलोक धन्वा

कवि मरते हैं
जैसे पक्षी मरते हैं
गोधूलि में ओझल होते हुए!

सिर्फ़ उड़ानें बची रह
जाती हैं

दुनिया में आते ही
क्यों हैं
जहाँ इंतज़ार बहुत
और साथ कम

स्त्रियाँ जब पुकारती हैं
अपने बच्चों को
उनकी याद आती है!

क्या एक ऐसी
दुनिया आ रही है
जहाँ कवि और पक्षी
फिर आएंगे ही नहीं!

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