गुमशुदा | आलोक पराडकर

गुमशुदा | आलोक पराडकर

बाजारों से बच्चे ही गायब नहीं होते
कई बार गायब हो जाता है
भरा-पूरा कोना
क्या कहीं लिखी जा सकती है यह प्राथमिकी
कि कैसे भरे बाजार लापता हो गई है
किताबों-अखबारों से भरी पूरी दुकान
सभी हैं अनजान

मेरे लिए तो
यह कोना एक हवाईअड्डा था
जहाँ मिलते थे रंगबिरंगे विमान
और आप लगा सकते थे
ज्ञान-विज्ञान की ऊँची उड़ान
यहीं कई बार मिल जाते थे
अपनी रचनाओं के बाहर भी
कई रचनाकार महान

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यह रामदत्त जी की थी दुकान
जिन्हें देखा नहीं कभी हमने
छपे पन्नों को पलटते हुए
लेकिन उनसे अछूती रह जाय
किसी वैचारिक बहस की
नहीं थी ऐसी मजाल
इन दिनों वे लगाने लगे थे जोरदार ठहाका
कहते-यही चलता रहा तो
अगली बार संग्रहालयों में मिलेंगे जनाब

अब यहाँ लगी है जो मशीन
वहाँ कार्ड लगाने पर नोट हैं निकलते
लेकिन क्या कोई बता सकता है
नगर के इस सबसे बड़े बाजार में
किताबें और अखबार कहाँ है मिलते

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