मैं दरख्त बनूँगी | आरती
मैं दरख्त बनूँगी | आरती

मैं दरख्त बनूँगी | आरती

मैं दरख्त बनूँगी | आरती

आज के ही जैसी कुछ रातें
मेरी नींद निगल जाया करती हैं
वे काली रातें ही होती हैं
ऐसा कहते हुए मुझे खिड़की खोलकर बाहर देखने की जरूरत नहीं
तब मैं गाढ़े रंग की शाल ओढ़कर
अपने हाथ पैरों को ठिठुरने से बचाने की जुगत में भिड़ जाया करती हूँ
ऐसे, जैसे कि धूसर मटमैले पानी का सैलाब मेरी ओर बढ़ा आ रहा हो
जैसे कि सोनभद्र का लंबा चौड़ा पाट मेरी पाँव की नोंक तक फैला हुआ है
ऐसी रातों में, अँधेरे में जासूसी करती मेरी आँखें
हजार हजार मील सफर तयकर आती हैं
वे अगोर लाती है फिर से कुछ काँटे खुड्डे तीर नोंक
फिर शुरू हो जाती है उधेड़बुन
फिर शुरू हो जाती है वही सिलाई टँकाई
ये काँटे खुड्डे, अब तक उग सकी फूल पत्तियों को चबाकर
अपना वजन बढ़ा लेते हैं और
शिलाखंडों में तब्दील हो
मेरी छाती पर लद जाते हैं
एकाध घंटा बीतते बीतते मेरी साँस रुकने ही लगती है
मैं करवटें बदलकर उन्हें ठेलने का प्रयास करती हूँ
चाहती हूँ कि मेरे बिस्तर से चर्र चूँ की आवाज आए
कोई मच्छर या खटमल ही काट ले
ऐसा नहीं होता और पहले से तैयार खड़ी मकड़ियों के पास
मुझ पर निशाना जमाने के लिए भरापूरा तरकश होता है
वही मकड़ियाँ जिन्हें दीवार के कोने कोने से उतारकर
घूरे पर फेंक आई थी
अड़ी रही निश्चय पर कि मुड़कर नहीं देखना दुबारा
पर हार गई मैं इस बिंदु पर
चेतना के इस हिस्से में मेरी झाडू बुहारी काम न आई
अब भी जहाँ तहाँ देखूँ
वे जाले पूर्ववत् जड़े हैं
और वे मकड़ियों के दल-ब-दल
कितना भी तेज भागूँ मैं
माला दस माला ऊपर चढ़ जाऊँ 
वे मेरा पता ठिकाना ढूँढ़ ही लेती हैं
फिलहाल कुछ दिनों से आश्वस्त थी मैं
रात के बारे में सोचना छोड़ दिया था
नींद के कतरों की कुछ थैलियाँ मेरे हिस्से आईं
मैंने काजल सा आँज लिया
मेरी पुतलियों में एक स्केच उभर आया
वहाँ नियोन चमकीले रंग भरकर मुस्कुराई मैं
मेरी मुस्कुराहटों के साथ मौसम बदला, कोयल गाने लगी
मैंने भी तो सुर मिलाए थे और
किसी गीत की पंक्तियों के साथ लगभग प्रार्थना की
‘यह मौसम बीते नहीं… बीते नहीं कभी’ 
पास खड़े ताड़ के पत्तों ने भी खरखराते हुए टेक मिलाई थी
इतने सारे जतन किए, बावजूद कि
वह रात भूलती ही नहीं जब
मेरे साथ साथ एक गौरैया भी अपने नन्हों को लेकर
अँधेरे में कोई कोना तलाशने निकली थी
नींद के किसी भी कोने में दुबक जाओ
मरी कलमुँही यादें भूलती ही नहीं
चुभती यादों के कंबल को उतारकरक फेंक दिया
लो… और अपनी जबर याददाश्त के
बड़े से मकान में टहलने निकल गई
खुरदुरी दीवारों को टटोलते
यह देखो मेरे बचपन का कमरा
देखो… सभी चीजें यथावत रखी हैं
सभी तसवीरें वहीं की वहीं टँगी हैं फ्रेमजड़ित
यह है मेरी छोटी बहन… देखो चलना सीख रही है
चलते चलते अँधेरे में गुम हो गई कहीं
देखो सिरिया की माई है ये…
ये तमूरावाले समोधन बाबा
और ये रही पंखीनाली
गीतों की तरह गालियाँ झरती थीं जिसके मुँह से
पर दिल की बड़ी भली थी
मैं बदन पर उग आए दरोरों को खुजलाते
मन को कहीं भी अटकाकर पूरी रात बिता देना चाहती थी
और जोर जोर से बतियाने लगी
यह देखो… वह देखो… और… और
जैसे साथ कोई खड़ा हो
मेरी बातों पर गौर करता
कोई आकृति उँगलियों के सामने
मेरे समानांतर चल रही हो
तीन बजकर बाईस मिनिट हुए हैं
तुम गहरी नींद में होगे
मेरे जेहन में कविता जैसा कुछ उभर रहा है
‘काश मैं काले पत्थरों वाला नदी का किनारा होती तो
अपनी ओर आते सर्द पानी के थपेड़ों को
और तेज धक्का देकर वापस लौटा देती’
मैं सत पत्थर नहीं
हालाँकि अपनी ओर आनेवाले थपेड़ों को जवाब देती आई हूँ
अब ऐसा ही तूफानी थपेड़ा बनकर
मेरी नींद को निवाला बना रही यह रात
कोई रहस्यमयी जादूगरनी सी अपने केश छितराए खड़ी है
मेरे पाँव के नीचे की दरारवाली धरती पुकारती है तब –
आओ मुझमें समा जाओ
मैंने डरना छोड़ दिया है घबराना भी
मुझे मिट्टी में मिलना मंजूर नहीं
मैं धूल बनकर हवा की मरजी से उड़ना नहीं चाहती
मुझे हरियाली से प्यार है
मुझमें सृष्टि का बीज संचित है
मैं बनूँगी पेड़ ठोस दरख्त
फैलूँगी फलूँगी
अब मेरे भीतर कविता की दूसरी पंक्तियाँ करवट ले रही हैं
‘ओ गौरैया अपने कुनबे को लेकर आओ
मेरी हजार फैली घनी शाखों में अपना आशियाना बनाओ
क्षितिज की खोज में उड़े जा रहे पंछियो
शाम ढले वापस आ जाना
इंतजार करेगा तुम्हारा घर 
यहाँ से कोई भी बेदखल नहीं कर सकता अब’
मैं मकड़ियों के अमले को दोनों हाथों से झेलती
बिस्तर पर उठकर बैठ गई
अँधेरे में ही टटोलकर स्विच बोर्ड बत्ती जला दी
मेरी मेज पर डायरी का अधलिखा पन्ना खुला है

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