जबर जोत | अशोक वाजपेयी

जबर जोत | अशोक वाजपेयी

उसने एक पेड़ काट कर फेंक दिया
कानून की उस निष्क्रिय उपधारा की तरह
जो उस जैसों के हित के लिए बनाई गई थी।
निर्धारित पद्धति से अलग
और गिरफ्तारी का इंतजार करते हुए
उसने अपने नए साहस के सरल गणित को
पहली बार पहचाना।
मुंशी और हवलदार वहीं पास थे
रौब के संवैधानिक व्याकरण से बँधे हुए
और जिंदगी में
बहुत बार चुप रहने के बाद अब
वह बेपरवाह एक नया शब्द बोल रहा था –
जाब्ता फौजदारी और राजस्व संहिता में
जिसके लिए प्रावधान न था।

See also  पग-पग पर हर पल | रास बिहारी पांडेय

जमीन के जरा-से टुकड़े को अपना मानकर
उसने नाधा हल
और पहली बार
अपने को बैलों से अलग कर लिया।

एक कील सी गड़ती चली गई
समृद्ध पातालिक शांति में
और बड़ी बी अट्टे पर से चीखीं
चीख उनकी आई नीचे तक बरकरार
कानून तोड़नेवालों को पूरी मुस्तैदी से
हमने किया गिरफ्तार।

See also  ले रहा हूँ होड़

सजा दी अदालत ने योग्य
आँकड़े सभी के रोज-रोज।
लौट गए सभी निश्चिंत
अपनी रौब-दाब की कानूनसम्मत भाषा में
जुती-अधजुती परती पर
कुछ फूट ही आया
भादों के बादलहीन आसमान के नीचे
सूखते सुनसान में
कुछ हरे शब्द मुंतजिर पड़े रह गए
पत्थर होने को।