कितने दिन और बचे हैं? | अशोक वाजपेयी

कितने दिन और बचे हैं? | अशोक वाजपेयी

कोई नहीं जानता कि
कितने दिन और बचे हैं?

चोंच में दाने दबाए
अपने घोसले की ओर
उड़ती चिड़िया कब सुस्ताने बैठ जाएगी
बिजली के एक तार पर और
आल्हाद से झूलकर छू लेगी दूसरा तार भी।

वनखंडी में
आहिस्ता-आहिस्ता एक पगडंडी पार करता
कीड़ा आ जाएगा
सूखी लकड़ियाँ बीनती
बुढ़िया की फटी चप्पल के तले।

See also  जो मर गए पिछली सर्दियों में

रेल के इंजन से निकलती
चिनगारी तेज हवा में उड़कर
चिपक जाएगी
एक डाल पर बैठी प्रसन्न तितली से।

कोई नहीं जानता कि
कितना समय और बचा है
प्रतीक्षा करने का
कि प्रेम आएगा एक पैकेट में डाक से,
कि थोड़ी देर और बाकी है
कटहल का अचार खाने लायक होने में,
कि पृथ्वी को फिर एक बार
हरा होने और आकाश को फिर दयालु और
उसे फिर विगलित होने में
अभी थोड़ा-सा समय और है।

See also  वह आती थी जैसे माँ आती है | अमरेंद्र कुमार शर्मा

दस्तक होगी दरवाजे पर
और वह कहेगी कि
चलो, तुम्हारा समय हो चुका।
कोई नहीं जानता कि
कितना समय और बचा है,
मेरा या तुम्हारा।

वह आएगी –
जैसे आती है धूप
जैसे बरसता है मेघ
जैसे खिलखिलाती है
एक नन्ही बच्ची
जैसे अँधेरे में भयातुर होता है
खाली घर।
वह आएगी जरूर,
पर उसके आने के लिए
कितने दिन और बचे है
कोई नहीं जानता।

See also  दोपहर की रात | अभिमन्यु अनत