यूँ न था | अविनाश मिश्र

यूँ न था | अविनाश मिश्र

समय और संसार प्रदूषण से बिल्कुल मुक्त है
सड़क पर कोई भी वाहन ऐसा नहीं जो धुआँ छोड़ रहा हो
सारे रास्ते खुले हुए और साफ हैं
बस में कहीं से भी चढ़ो सीट मिलती है, यही हाल मेट्रो का भी है
रेलगाड़ियों में भी हर वक्त उपलब्ध है बर्थ – किसी भी श्रेणी में
उनमें एक रात का सफर कर कभी भी आराम से जाया जा सकता है –
जंगलों, समुद्रों, पहाड़ों और मरुस्थलों तक…
कार्य-स्थल के एकदम नजदीक
बड़े और बेहतर घर बहुत कम किराए पर मिल रहे हैं
स्कूलों-कॉलेजों और अस्पतालों में कतारें बहुत छोटी हैं
कोई निराश नहीं है
सबको मिल रहा है जरूरत भर काम
जरूरत भर अन्न
जरूरत भर पानी
मिल रही है जरूरत भर बिजली
मिल रहे हैं जरूरत भर कपड़े
मिल रहा है जरूरत भर सम्मान 
जरूरत हो तो जरूरत भर कर्ज भी संभव है और जरूरत भर शराब भी
इस तरह अब सब जरूरत भर सुखी हैं और बने हुए हैं जरूरत भर मनुष्य
जहाँ तक नजर जाती है सब कुछ बहुत विकसित, सुंदर और सुविधाजनक है समाज में
अराजकता नहीं है, अकेलापन नहीं है, अन्याय नहीं है
दूर-दूर तक केवल समानता है, यकीन है, स्वप्न हैं –
और दूरियाँ इतनी कम हैं कि जिससे बात करने का मन हो उसे छू भी लो
कानून की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि सब सुधर गए हैं
अभिव्यक्ति पर कोई संकट नहीं है
और लोग जो चाहे लिख सकते हैं
और इस सबसे भी बड़ी बात कि सबके पास पाठकों की पूरी फौज है :
भले ही लिखने वाला मूर्ख हो
भले ही लिखने वाला पागल हो
भले ही लिखने वाला कवि हो

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